Thursday, January 26, 2012

यकीन नहीं होता, सुभाष....


यकीन नहीं होता, इन भेड़ियों को देख
इस जंगल में , किसी शेर ने भी दहाड़ा था.

यकीन नहीं होता, पगडंडियों पर सपोंलों को रेंगते देख
इस रह गुजर से, कोई नेवला भी गुजरा था.

यकीन नहीं होता, जवानो की खून की गर्मी देख
तपिश पसीने की तुम्हारी, अब वतन मेरा तरस रहा.

यकीन नहीं होता, रेत की दीवारों से ढहते उसूलों को देख
फौलादी इरादे कैसे थे, जो मंजर अब तब तक टिका रहा.

यकीन नहीं होता, हलके से झोंके पर बुझते चिरागों को देख
कौन था जो चिराग हथेली पर रख, तूफानों  से टकराया.

यकीन नहीं होता, इन स्वार्थियों का रचा प्रपंच देख
कैसा जूनून रहा उसका, जो सब तज अपनी बली दे बैठा.

यकीन नहीं होता, बुझा चिराग दुबक बैठे अपने घरों में
कौन था जो, रोशन घर करने सूरज से जा भिड़ा.

मेरा तो सर झुकता सजदे में, यादें कर बीते दिनों की
जब से भूले तुमको , यह गुलिस्तां अब शमशान से बदतर लग रहा...
२६ jan २०१२

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