Friday, October 28, 2011

अशहार-1


बार बार चेहरा, नजर तुम्हारा आता,
आइना ऐसा, क्यों दिखाते मुझे हो.  
मत फेंको, पत्थर मजारे मुहब्बत पर मेरी,  
छिपी रंज में चिंगारी ,
आशियाँ तुम्हारा जला ना दे .

क़त्ल कर मासूमों का ,
दुआ करने वालों, घर लौट आओ ,
यह सैलाब आंसूओं का,
डुबो तुम्हे ना दे.

जो कांटे बोये राह पर मेरी,
बुहार दिए हैं मैंने अब
अब मत बीनों इन्हें ,
बेदर्दी से कोई जख्मी तुम्हे ना कर दे.

वार खंजर के सहे उनसे,
जो दम दोस्ती का भरते रहे.
ए दोस्त छिपा लो खंजर अपना,
कातिल तुम्हे मेरा न कोई कह दे.

किसने पाया सुकून,
करके मुहब्बत किसी बावफा से.
तुम मुझसे वफ़ा ना करना,
यह मुहब्बत रुसवा तुम्हे ना कर दे.

तमाम रात अंधेरों से लड़ती रही ,
थरथराती लौ दीये की छिपा लो
अब सहर होने को ,
फूंक बावले की बुझा इसे ना दे.

दोस्तों की महफिलों से ऊब ,
मैकदे की तलाश में मन बावला
दुश्मनों के इस शहर में पूंछूं कैसे पता ,
दिल मेरा फिर कोई बहला यहाँ ना दे.

कैसे पता करून इस हुजूम में,
कौन है दुश्मन तो कौन दोस्त
कैसे नज़र मिलाऊं किससे,
फिर आस्तीन में खंजर कोई छिपा ना दे.

मैं तो अब भी खड़ा कर रहा इंतज़ार ,
तुम्ही ने दूर जा बढ़ा दिए फासले
कशिश सी हो गयी फासलों से ,
कोई वापस मुड़ इन फासलों को मिटा ना दे.

अपनी तो आदत सी रही ,
जब भी मिले बांछें खोल दिल खोल मिले
दे हाथ में खंजर घोल जुबान में मिसरी ,
अब दुनियादारी कोई सीखा ना दे.

No comments:

Post a Comment