Sunday, October 2, 2011

थकान

दिन भर,
थक हार कर,
काम से चूर,
 लोगों की बातों से परेशान
जब भी मैं सो जाता.
 मेरे स्वप्न में, एक -
स्वान भूकता.

बना तरह-तरह के चेहरे
डराता-
मेरे मन के-
कोने में बसे
नन्हे बालक को.
और वो बालक -
भागता-फिरता,
डरा सहमा सा.
पर वह स्वान,
नहीं रुकता,
 पीछा करता. 
हंसी विकराल उसकी,
अट्टहास करता,
मिट्टी में लोट पलोट हो,
खुजली अपनी  मिटाता .
लपलपाती जीभ-
बेकल करती
मचल उठता-
खा जाने को बेचैन  मांसल,
बेबस को. 

नन्हा मासूम-
चढ़ जाता,
पेड़ की ऊँची शाख पर,
छिप बैठता
मधुमखी के छत्ते में.
मधु में लिपटा -
स्वाद लेता.
अनजान -
नीचे बैठे भूंकते स्वान से. 

मैं स्वप्न में ही
सिहर जाता
.क्या होगा
जब टूटेगा छत्ता.
कभी तो भंग होगा,
स्वप्न.
मैं-
वही सब स्वप्न में देखता
जो दिन भर गुजार आता.

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