Monday, October 10, 2011

तुम नहीं लौटे


रात भर-
सुनसान गली-
झींगूरों से गूंजती,
जुगनूओं से जगमगाती-
साथ मेरे,
पथ निहोरती रही.

अब, दूब भी
सहमी-सहमी सी
इन गलियों के
किनारे - किनारे
संजोती रही -
ओस की बूँदें.
शायद तुम
इक नयी राह से लौटो
और पैर तुम्हारे पखारे.

सुन सकते हो -
तो सुनो
आज भी समझते हैं
सब बुरे को बुरा-
पर तुम नहीं लौटे

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